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कश्मीर का राजा हर्षदेव क्रूरता, अत्याचार और पतन की पूरी कहानी
परिचय (Introduction)
हमें यह याद रखना चाहिए की कश्मीर का प्राचीन इतिहास केवल ऋषियों, मंदिरों और सांस्कृतिक समृद्धि तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसमें ऐसे शासक भी गुजरें हैं जिनका शासन जनता के लिए भय, अत्याचार और पीड़ा का कारण बना था। इन्हीं शासकों में एक नाम कश्मीर के राजा हर्षदेव (हर्ष) का आता है। ऐतिहासिक ग्रंथ कल्हण द्वारा रचित ‘राजतरंगिणी’ में हर्षदेव को कश्मीर के सबसे क्रूर और अत्याचारी राजाओं में गिना गया है, जिसके माध्यम से उसके अत्याचार और गलत नीतियों को शामिल किया गया है।
नोट: यहाँ सबसे पहले यह जान लेना
ज़रूरी है की राजतरंगिणी’ क्या है?
राजतरंगिणी (आसन शब्दों में: राजाओं की
नदी) इसे संस्कृत भाषा में लिखा
गया है जो की एक ऐतिहासिक काव्य ग्रंथ है, इसे कल्हण ने 12वीं सदी में
रचा था और यह पूरी तरह से कश्मीर के राजाओं और उनके शासनकाल का विस्तृत इतिहास
प्रस्तुत करता है, इसमें महाभारत
काल से लेकर 1150 ईस्वी तक की घटनाओं का वर्णन है, जो इसे भारतीय इतिहास लेखन की एक महत्वपूर्ण कृति बनाता है.
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राजा हर्षदेव कौन था? (Who was King Harshdev of Kashmir?)
हर्षदेव कश्मीर के लोहार वंश (Lohara Dynasty) का एक
शासक था। वह राजा कलश (Kalasha) का
पुत्र था। हर्षदेव का शासनकाल 1089 ई. से 1101 ई. के बीच का था।
इतिहासकारों के अनुसार, हर्षदेव बुद्धिमान और शिक्षित तो था ही , लेकिन उसके भीतर लालच, निर्दयता और सत्ता के प्रति असीम भय भी मौजूद था। यही कारण है कि सत्ता मिलते ही उसके अन्दर छुपा हुआ शैतान बाहेर आ गया और उसका असली रूप जनता को किखने लगा।
हर्षदेव को सत्ता कैसे
मिली?
उसके पिता राजा कलश की मृत्यु
के बाद हर्षदेव को शासन का अधिकार मिला, जब हर्षदेव गद्दी पर बैठा था, तब
जनता को उससे कई उम्मीदें थीं। प्रारंभिक समय में उसने कुछ करों में ढील दी थी और
जनता के सामने न्यायप्रिय राजा बनने का दिखावा किया था। लेकिन यह सब केवल सत्ता को
मजबूत करने की उसकी रणनीति थी।
कुछ ही समय बाद उसने दमनकारी नीतियाँ
अपनानी शुरू कर दीं और उसका शासन आतंक के सहारे चलने लगा।
हर्षदेव की क्रूरता का असली चेहरा
1. धार्मिक संस्थानों पर अत्याचार: हर्षदेव की क्रूरता का सबसे भयावह रूप उसके द्वारा मंदिरों के विध्वंस में देखने को मिलता है। ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार, उसने कश्मीर के अनेक प्राचीन मंदिरों को लूटने और नष्ट करने का आदेश दिया था।
वह इस कदर दमनकारी और लालची था की उसने मंदिरों में स्थापित देव मूर्तियों को तोड़ने और उनमें लगे सोने-चाँदी को निकालने के लिए एक विशेष विभाग तक बना रखा था। यह कार्य केवल धन के लिए नहीं, बल्कि उसकी निर्दयी, और लालची मानसिकता को भी दर्शाता है।
2. जनता पर भारी कर और आर्थिक शोषण: हर्षदेव का शासन आम जनता के लिए आर्थिक तबाही का दौर माना जाता है। उसने युद्धों, दरबारी विलासिता और निजी सुखों के लिए जनता पर भारी कर लगाए था।
किसान, व्यापारी और सामान्य नागरिक जब कर
चुकाने में असमर्थ हो जाते थे, तो उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी। इसकी in
नीतियों के कारण कई परिवार भुखमरी के कगार पर पहुँच गए थे।
3. निर्दोष लोगों की हत्या और दमन: हर्षदेव को अपने ही मंत्रियों और सेनापतियों पर बिलकुल भी भरोसा नहीं था। वह कभी भी जरा-सी शंका पर अपने ही लोगों को मौत के घाट उतार देता था।
राजतरंगिणी में उल्लेख मिलता है कि उसने बिना किसी ठोस प्रमाण के कई निर्दोष लोगों की हत्या करवाई थी। इससे राज्य में भय और अव्यवस्था फैल गई थी।
4. दरबार में षड्यंत्र और भय का
माहौल: हर्षदेव का दरबार हर समय साजिशों से भरा रहता
था। वहाँ कोई भी व्यक्ति खुद को सुरक्षित नहीं मानता था। हर कोई जानता था कि राजा
का क्रोध कभी भी हमारी जान ले सकता है।
इस कारण योग्य और ईमानदार अधिकारी शासन से दूर हो गए थे और प्रशासन पूरी तरह कमजोर हो गया था।
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हर्षदेव का नैतिक पतन:
हर्षदेव केवल एक क्रूर शासक ही नहीं था, बल्कि नैतिक रूप से भी पतित था। वह अत्यधिक विलासी था और राज्य की संपत्ति को नर्तकियों, गायकाओं और भोग-विलास पर खर्च कर दिया करता था।
जिस समय जनता भूख से मर रही थी, उस समय राजा ऐश्वर्य में डूबा हुआ था। यह विरोधाभास उसकी अमानवीयता को उजागर करता है।
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जनता का असंतोष और
विद्रोह:
हर्षदेव के अत्याचारों के कारण कश्मीर में जगह-जगह असंतोष फैला हुआ था। सामंत, सैनिक और आम नागरिक सभी उससे त्रस्त थे, हर कोई चाहता था की राज्य को इससे छुटकारा मिले।
हालाँकि उसने विद्रोहों को बलपूर्वक
कुचल दिया था, लेकिन ऐसा करने से उसकी स्थिति और कमजोर हो गई।
उसका शासन अब केवल भय पर ही आधारित था।
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हर्षदेव का पतन (Downfall of Harsha)
इतिहास गवाह है कि थोड़ा समय ज़रूर लगता है लेकिन अत्याचार का अंत निश्चित होता है। हर्षदेव के साथ भी यही हुआ। उसके विरोधी संगठित हुए और अंततः उसका शासन समाप्त हो गया।
राजतरंगिणी के अनुसार, उसके पतन के समय जनता में कोई शोक नहीं था। लोग इसे उसके कर्मों का फल मानते थे, आम जनता में ख़ुशी की लहर थी, अब हर कोई सामान्य जीवन जीने की उम्मीद में था।
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इतिहासकारों की दृष्टि
से हर्षदेव
आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि हर्षदेव का शासन कश्मीर के इतिहास का सबसे अंधकारमय काल था। धार्मिक असहिष्णुता, आर्थिक शोषण और राजनीतिक क्रूरता ने राज्य की नींव हिला कर रख दी थी।
हालाँकि यह भी माना जाता है कि हमारे
अधिकांश स्रोत राजतरंगिणी पर आधारित हैं, फिर भी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर हर्षदेव को एक
अत्याचारी शासक ही माना जाता है
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हर्षदेव से क्या सीख
मिलती है? (Lessons
from History)
हर्षदेव का शासन हमें यह सिखाता है कि जब कोई शासक न्याय, धर्म और करुणा को छोड़कर केवल सत्ता और विलासिता में डूब जाता है, तो उसका पतन निश्चित होता है, और उसके पतन पर दुश्मन ही नहीं अपनी भी जनता ख़ुशी मनाती है।
याद रखिए: इतिहास केवल अतीत की कहानी
नहीं, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी भी होता है।
मध्यकालीन भारत पर आधारित MCQ Solve करने के लिए हमारी इस पोस्ट को ज़रूर पढ़िए Medieval India 20 MCQ in Hindi
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औरंगजेब
और राजा हर्षदेव
मंदिरों को तोड़ने और नुक्सान पहोंचाने के लिए औरग्ज़ेब और राजा हर्षदेव की तुलना की जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है की....
कश्मीर के राजा हर्षदेव
(हर्ष) ने अपने शासनकाल में व्यवस्थित और सर्वव्यापी
रूप से अधिक मंदिरों को नुकसान पहुँचाया,
जबकि...
औरंगज़ेब द्वारा मंदिरों को नुकसान पहुँचाना चयनात्मक, राजनीतिक और सीमित संदर्भों में हुआ।
इसलिए मंदिर-विध्वंस की निरंतरता और
व्यापकता के आधार पर हर्षदेव अधिक कठोर प्रतीत होता है।
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अब इसे विस्तार से, तथ्यों के साथ समझते हैं
1. राजा हर्षदेव
(कश्मीर) – तथ्यात्मक मूल्यांकन
मुख्य स्रोत:
- कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ (12वीं शताब्दी)
- मंदिरों के साथ व्यवहार
- हर्षदेव ने: मंदिरों को राजकोष भरने का साधन बना लिया था
- मूर्तियाँ तुड़वाईं, सोना-चाँदी निकलवाया और उपयोग में ले लिया
- इसके लिए अलग विभाग (Temple-destruction unit) तक स्थापित किया था
यह प्रक्रिया:
- लगातार चलती रही
- पूरे कश्मीर में मंदिरों को नुक्सान पहोंचाया गया
- बिना धार्मिक भेद के (शैव, वैष्णव, बौद्ध सभी) मंदिरों को तोडा गया
उद्देश्य:
- न धार्मिक सुधार
- न वैचारिक संघर्ष
- शुद्ध आर्थिक लूट और क्रूरता
- कल्हण हर्षदेव को स्पष्ट शब्दों में “देवद्रोही और निर्दयी” कहता है।
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2. औरंगज़ेब – ऐतिहासिक संदर्भ में
मुख्य स्रोत:
- फ़ारसी दरबारी दस्तावेज
- फरमान
आधुनिक इतिहासकार:
- सतीश चंद्र
- ऑड्री ट्रश्के
- रोमिला थापर
मंदिरों के साथ व्यवहार
औरंगज़ेब ने:
- कुछ मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए (जैसे: काशी विश्वनाथ, मथुरा)
- लेकिन हज़ारों मंदिरों को जागीर, अनुदान और संरक्षण भी दिया था
कई फरमान मौजूद हैं जिनमें:
- ब्राह्मणों को वेतन
- मंदिरों को भूमि दान
- पूजा में हस्तक्षेप न करने के आदेश
उद्देश्य
- अधिकतर मामलों में:
- राजनीतिक विद्रोह मुख्य कारण
- राजकीय अवज्ञा
- शक्ति प्रदर्शन
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार यह राजनीतिक नीति थी, न कि सर्वव्यापी धार्मिक अभियान
3. तुलनात्मक सारणी (सीधे शब्दों में) इस प्रकार है|
|
मापदंड |
राजा हर्षदेव |
औरंगज़ेब |
|
मुख्य स्रोत |
राजतरंगिणी
|
फरमान, इतिहासकार |
|
मंदिर-विध्वंस |
लगातार और व्यापक
|
सीमित और चयनात्मक |
|
उद्देश्य |
आर्थिक लूट + क्रूरता |
राजनीतिक नियंत्रण |
|
भौगोलिक विस्तार |
पूरा कश्मीर
|
कुछ विशेष क्षेत्र |
|
संरक्षण के उदाहरण |
नहीं
|
हाँ (कई मंदिर) |
इतिहास के प्रमाणों के आधार पर:
हर्षदेव ने अधिक संख्या में और अधिक व्यवस्थित रूप से
मंदिरों को नुकसान पहुँचाया**
औरंगज़ेब का चित्र जटिल है, न
कि एकतरफा
इसलिए यह कहना ऐतिहासिक रूप से सही
होगा कि:
मंदिरों को सबसे अधिक और लगातार नुकसान
पहुँचाने वाला शासक – राजा हर्षदेव था, न कि औरंगज़ेब।
__________________________________
निष्कर्ष (Conclusion):
कश्मीर का राजा हर्षदेव इतिहास में क्रूरता, अत्याचार और सत्ता के दुरुपयोग का प्रतीक बन चुका है। उसका शासन हमें यह दर्शाता है कि भय और हिंसा के सहारे कोई भी राज्य लंबे समय तक नहीं चल सकता है।
हर्षदेव की कहानी आज भी प्रासंगिक है
और हमें यह याद दिलाती है कि एक शासक की सबसे बड़ी शक्ति उसकी नैतिकता और जनता का
विश्वास होता है, न की लालच, भय और क्रूरता।
मध्यकालीन भारत पर
आधारित MCQ Solve करने के लिए हमारी इस पोस्ट को ज़रूर पढ़िए Medieval India 20 MCQ in Hindi
